baba saheb ambedkar jayanti : जानिये बाबा साहेब और उनके स्मारकों के बारे में

baba saheb ambedkar jayanti : जानिये बाबा साहेब और उनके स्मारकों के बारे में भारत सोमवार को डॉ. बीआर आंबेडकर की 135वीं जयंती मना रहा है। आंबेडकर के विचार केवल इतिहास की किताबों या औपचारिक श्रद्धांजलि कार्यक्रमों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि प्रतिरोध की परिभाषा को आकार दे रहे हैं और अदालतों से लेकर कक्षाओं, विरोध-प्रदर्शनों और साइबर संसार तक में गूंज रहे हैं, जहां जाति, समानता एवं लोकतंत्र के बारे में बहस अब भी जारी है।

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वह एक क्रांतिकारी विचारक थे


संविधान निर्माता के रूप में विख्यात आंबेडकर एक विधिशास्त्री से कहीं अधिक थे। वह एक क्रांतिकारी विचारक थे, जिनका समतावादी और जाति व्यवस्था मुक्त भारत का दृष्टिकोण देश के समकालीन सामाजिक-राजनीतिक विमर्श के लिए आज भी बेहद प्रासंगिक है। दलित अधिकार कार्यकर्ता डॉ. सूरज येंगड़े के मुताबिक, आंबेडकर की छवि का इस्तेमाल अक्सर राजनीतिक लाभ के लिए किया जाता है, लेकिन जाति व्यवस्था की उनकी कड़ी आलोचना को स्वीकार किए बिना। डॉ. येंगड़े ने अपनी किताब ‘कास्ट मैटर्स’ में लिखा है, आंबेडकर की छवि का इस्तेमाल किसी भी मुद्दे पर दलितों के आक्रोश को दबाने के लिए किया जाता है, जिससे उत्पीड़कों को फायदा मिलता है, जो आंबेडकर को घृणा औरंिहसा के अपने क्रूर एजेंडे में शामिल करके बहुत खुशी महसूस करते हैं। उन्होंने रेखांकित किया है कि कैसे नेताओं ने 2024 के आम चुनावों के दौरान संविधान को एक प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल किया। डॉ. येंगड़े के अनुसार, उन्हें (नेताओं को) सामाजिक न्याय, कल्याणकारी योजनाओं, शिक्षा, स्वास्थ्य, कराधान और श्रमिक वर्ग की सुरक्षा जैसे पारंपरिक मुद्दों के बजाय संविधान की ओर आम जनता का ध्यान आकषिर्त करना ज्यादा लाभदायक लगा।

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वर्ष 1891 में मध्यप्रदेश के महू में एक दलित परिवार में जन्मे

वर्ष 1891 में मध्यप्रदेश के महू में एक दलित परिवार में जन्मे आंबेडकर को कम उम्र से ही सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा था। हालांकि, कोलंबिया विविद्यालय और लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पीएचडी सहित शिक्षा के लिए उनके अथक प्रयास ने उन्हें भारत के सबसे प्रखर बुद्धिजीवियों और समाज सुधारकों में से एक बना दिया।
आंबेडकर ने जाति व्यवस्था की सबसे तीखी आलोचना 1936 में प्रकाशित अपने निबंध ‘जाति का विनाश’ में की थी, जो मूलत: एक भाषण के रूप में लिखा गया था। हालांकि, भाषण की विषय-वस्तु के कारण उन्हें सार्वजनिक मंच पर इसे देने का मौका कभी नहीं मिला। ‘जाति का विनाश’ में आंबेडकर ने लिखा था, ‘‘जाति श्रम का विभाजन नहीं है, बल्कि यह श्रमिकों का विभाजन है। यह एक पदानुक्रम है, जिसमें श्रमिकों के विभाजन को एक के ऊपर एक वर्गीकृत किया जाता है।’’ ये शब्द कक्षाओं, विरोध-प्रदर्शनों और जाति, आरक्षण एवं सामाजिक न्याय से जुड़ी नीतिगत बहसों में आज भी गूंजते हैं। समय के साथ आंबेडकर की विरासत की प्रासंगिकता बढी है, न केवल सार्वजनिक स्थानों पर प्रतिमाओं और चित्रों के माध्यम से, बल्कि लोकप्रिय संस्कृति, अकादमिक विद्वत्ता और विरोध की राजनीति के जरिये भी। आंबेडकर की जयंती पर भले ही विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं, लेकिन संविधान निर्माता की विरासत की उनकी व्याख्याएं व्यापक रूप से अलग होती हैं।

जाति जनगणना असमानता और भेदभाव की सच्चाई को सामने लाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है

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प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल ही में कहा था कि ‘‘विकसित और समावेशी भारत’’ का निर्माण आंबेडकर को सच्ची श्रद्धांजलि होगा। वहीं, कांग्रेस नेता राहुल गांधी जाति जनगणना को आंबेडकर की समानता की चाह से जोड़ते हुए लगातार इसकी वकालत कर रहे हैं। राहुल ने हाल ही में एक सोशल मीडिया पोस्ट में कहा था, ‘‘जाति जनगणना असमानता और भेदभाव की सच्चाई को सामने लाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, जिसे इसके विरोधी उजागर नहीं होने देना चाहते।’’ उन्होंने लिखा था, ‘‘बाबासाहेब का सपना अभी भी अधूरा है। उनकी लड़ाई सिर्फ अतीत तक सीमित नहीं थी, बल्कि यह आज की भी लड़ाई है और हम इसे पूरी ताकत से लड़ेंगे।’’ बावजूद इसके, कई विद्वानों का तर्क है कि आंबेडकर को प्रतीकात्मक श्रद्धांजलि भले ही कई गुना बढ गई है, लेकिन उन्होंने जिस ढांचागत जाति-आधारित अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी, उसकी जड़ें अभी भी गहराई से व्याप्त हैं।

57,582 मामले दर्ज किए गए

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2022 में अनुसूचित जातियों (एससी) के खिलाफ अपराध के कुल 57,582 मामले दर्ज किए गए। आंबेडकर ने जाति-आधारित अपराधों से जुड़े खतरों को पहले ही भांप लिया था और 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में अपने अंतिम भाषण में इसे लेकर आगाह किया था। डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर लेखन और भाषण (बीएडब्ल्यूएस) के खंड 13 के अनुसार, आंबेडकर ने कहा था, ‘‘राजनीतिक लोकतंत्र तब तक नहीं टिक सकता, जब तक कि उसकी नींव में सामाजिक लोकतंत्र न हो.. एक ऐसी जीवन पद्धति जो स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में मान्यता देती है।’’ जाति के अलावा आर्थिक न्याय, शिक्षा, लैंगिक अधिकार और राज्य नियोजन को लेकर भी आंबेडकर का व्यापक दृष्टिकोण था।

आंबेडकर ने 1946 में लिखा था कि भारत में अछूतों की स्थिति और अमेरिका में अफ्रीकी-अमेरिकियों की स्थिति में बहुत समानता है।

अफ्रीकी-अमेरिकी विचारक डब्ल्यूईबी डु बोइस के साथ उनके पत्राचार में उनके संघर्ष के वैिक आयाम प्रतिंिबबित होते हैं। बीएडब्ल्यूएस के खंड 10 के मुताबिक, आंबेडकर ने 1946 में लिखा था कि भारत में अछूतों की स्थिति और अमेरिका में अफ्रीकी-अमेरिकियों की स्थिति में बहुत समानता है। डॉ. येंगडे ने जाति चेतना के बारे में आंबेडकर के विश्लेषण की स्थायी प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला है। उन्होंने ‘कास्ट मैटर्स’ में लिखा है, ‘‘आंबेडकर की दूरदर्शिता इस बात से झलकती है कि उन्होंने कहा था कि प्रत्येक जाति अपने आप में एक राष्ट्र है, जिससे राष्ट्रीय भाईचारे की भावना विकसित करने में मदद नहीं मिली।’’ लोकतांत्रिक पतन पर बहस के बीच संघवाद और सत्ता के केंद्रीकरण पर नियंतण्रकी आंबेडकर की वकालत का आज भी जिक्र किया जाता है।

‘इंडियाज साइलेंट रिवॉल्यूशन’


संविधान सभा में 1949 में दिए गए भाषण में कही गई आंबेडकर की यह बात कि ‘‘लोकतंत्र मूलत: अलोकतांत्रिक भारतीय भूमि पर केवल एक ऊपरी आवरण है’’ बहुसंख्यकवाद पर होने वाली चर्चाओं में अक्सर उद्धृत की जाती है। राजनीतिक वैज्ञानिक क्रिस्टोफ जैफरलॉट ने 2003 में प्रकाशित अपनी किताब ‘इंडियाज साइलेंट रिवॉल्यूशन’ में लिखा है कि कैसे आंबेडकर ने सामाजिक समानता के बिना लोकतंत्र के खतरों को पहले ही भांप लिया था, एक चेतावनी जो आज भी भारत के राजनीतिक परिदृश्य पर छाई हुई है। आंबेडकर का यह दृष्टिकोण 2025 में भी प्रासंगिक है कि सामाजिक और आर्थिक न्याय के बिना लोकतंत्र फल-फूल नहीं सकता। आज जब जाति, वर्ग और सांप्रदायिक विभाजन के खिलाफ भारत की लड़ाई जारी है, तब ‘जाति के विनाश’ में लिखी आंबेडकर की यह बात प्रेरित करना जारी रखती है कि ‘‘राजनीतिक अत्याचार सामाजिक अत्याचार की तुलना में कुछ भी नहीं है, और एक सुधारक जो समाज की अवहेलना करता है, वह सरकार की अवहेलना करने वाले नेता की तुलना में अधिक बहादुर व्यक्ति है।


जर्मन पनडुब्बी ने जहाज के साथ आंबेडकर का पीएचडी शोध प्रबंध भी पानी में डुबो दिया था

डॉ. बी.आर. आंबेडकर को शिक्षा के क्षेत्र में अपने करियर के रास्ते में कई बाधाओं का सामना करना पड़ा, उनमें से एक जर्मन पनडुब्बी भी थी। वर्ष 1917 में, जब प्रथम वियुद्ध अपने चरम पर था, आंबेडकर ने अपने पीएचडी शोध प्रबंध का एक मसौदा और पुस्तकों का एक विशाल संग्रह एसएस साल्सेट नामक जहाज के जरिये लंदन से तत्कालीन बॉम्बे भेजा था। हालांकि एक जर्मन पनडुब्बी से दागे गए टारपीडो ने उक्त जहाज के साथ ही आंबेडकर की पुस्तकों और उनके पीएचडी शोध प्रबंध के मसौदे को इंग्लिश चैनल की गहराई में डुबो दिया था।
‘प्रॉब्लम आफ रुपी’ नामक पुस्तक के लेखक आंबेडकर से जुड़ी यह घटना अब एक पुस्तक का हिस्सा बन गई है। हालांकि इस घटना के बावजूद आंबेडकर ने आगे बढने का अपना हौसला नहीं छोड़ा और उन्होंने अपना प्रयास दोगुना कर दिया। उन्हें कम से कम दो डॉक्टरेट और कई अन्य मानद उपाधियां मिलीं। इस घटना के साथ ही आंबेडकर के अथक शैक्षणिक प्रयासों को आकाशंिसह राठौर की पुस्तक ‘बीकंिमग बाबासाहेब: द लाइफ एंड टाइम्स ऑफ भीमराव रामजी आंबेडकर (खंड 1) में शामिल किया गया है। इस पुस्तक को हार्परकॉलिन्स इंडिया द्वारा प्रकाशित किया गया है। बड़ौदा छात्रवृत्ति की अवधि समाप्त होने और रियासत द्वारा वित्तीय सहायता बढाने से इनकार किये जाने के बाद आंबेडकर को वर्ष 1917 की गर्मियों में भारत लौटने के लिए मजबूर होना पड़ा। वे लंदन से रवाना हुए, वह शहर जहां उन्होंने एक साल से अधिक समय तक अथक परिश्रम किया था। उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में एमएससी का कोर्सवर्क पूरा कर लिया था और कोलंबिया विविद्यालय में पीएचडी की तैयारी में थे। हालांकि, उन्हें अभी भी अपनी ‘मास्टर्स थीसिस’ जमा करनी थी और उनका डॉक्टरेट शोध प्रबंध भी पूरा नहीं हुआ था। इसके अलावा, उन्होंने ‘ग्रेज इन’ में अपना विधिक प्रशिक्षण शुरू ही किया था। इस प्रकार विवश होकर उन्होंने अपनी पुस्तकें और कागजात ब्रिटिश स्टीमर एसएस साल्सेट के कागरे में अलग-अलग भेजे तथा स्वयं एसएस कैसर-ए-ंिहद पर सवार होकर भारत पहुंचे। बीस जुलाई को जर्मन पनडुब्बी यूबी-40 ने एसएस साल्सेट पर एक टारपीडो दागा। इस हमले में चालक दल के 15 सदस्य मारे गए और आंबेडकर की थीसिस के साथ-साथ उनकी पुस्तकों का विशाल संग्रह भी पानी में डूब गया। राठौर ने अपनी पुस्तक में लिखा है, ‘‘टारपीडो के हमले के 45 मिनट बाद एसएस साल्सेट डूब गया, जिससे बड़ी संख्या में आंबेडकर की पुस्तकें और उनके महत्वपूर्ण कागजात समुद्र की तलहटी में समा गए। इसमें कोलंबिया विविद्यालय में उनके डॉक्टरेट शोध प्रबंध (‘द नेशनल डिविडेंड‘) का पहला मसौदा भी शामिल था। आंबेडकर 21 अगस्त, 1917 को बॉम्बे पहुंचे और महार समुदाय के सदस्यों ने उनकी शैक्षणिक उपलब्धियों के लिए उनका भव्य स्वागत किया।


प्रतिमा से लेकर स्टेडियम व अस्पताल तक: दुनिया भर में फैले स्मारक आंबेडकर की विरासत के प्रमाण हैं

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संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर के स्मारक महू स्थित उनके जन्मस्थान से लेकर लंदन में उनके निवास तक फैले हुए हैं। साथ ही देश-विदेश में अनेक स्टेडियमों, रेलवे स्टेशनों, कॉलेजों, अस्पतालों का नाम उनके नाम पर है तथा उनकी कई प्रतिमाएं स्थापित हैं जो उनकी विरासत का प्रमाण हैं। चौदह अप्रैल 1891 को जन्मे आंबेडकर को बाबा साहेब कहा जाता है। वह संविधान सभा की सबसे महत्वपूर्ण प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे, जिसके कारण उन्हें ‘भारतीय संविधान के निर्माता‘ की उपाधि मिली। इंदौर (मध्य प्रदेश) के पास उनका जन्मस्थान महू अब आंबेडकर नगर के नाम से जाना जाता है।

आंबेडकर स्मारक

महू में आंबेडकर का एक स्मारक – भीम जन्मभूमि – है। राज्य सरकार ने 1991 में आंबेडकर की 100वीं जयंती पर इस भव्य स्मारक की स्थापना की थी। उनके नाम पर दो अन्य महत्वपूर्ण स्थान हैं- नागपुर में उनकी ’दीक्षाभूमि’, जहां आंबेडकर ने अपने हजारों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया था और मुंबई में दादर समुद्र तट पर ‘चैत्यभूमि’, जहां उनकी समाधि बनाई गई है। आंबेडकर की दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा में स्थित है। इसे ’सामाजिक न्याय की प्रतिमा’ के नाम से जाना जाता है। यह प्रतिमा 206 फुट ऊंची है और डॉ. बी.आर. आंबेडकर स्मृति वनम (स्मारक) का हिस्सा है। भारत के बाहर आंबेडकर की सबसे ऊंची प्रतिमा का औपचारिक उद्घाटन 2023 में अमेरिका के मैरीलैंड में किया गया। 19 फुट ऊंची ’स्टैच्यू ऑफ इक्वैलिटी’ को प्रसिद्ध कलाकार और मूर्तिकार राम सुतार ने बनाया है, जिन्होंने गुजरात में सरदार पटेल की प्रतिमा (स्टैच्यू ऑफ यूनिटी) भी बनाई थी। अमेरिका में कोलंबिया विविद्यालय, जापान में कोयासन विविद्यालय, कनाडा में साइमन फ्रेजर विविद्यालय और ब्रिटेन में लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स उन विदेशी विविद्यालयों में शुमार हैं जहां आंबेडकर की प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं। अन्य देश जहां आंबेडकर की प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं, उनमें अजरबैजान, हंगरी, मॉरीशस, मेलबर्न (ऑस्ट्रेलिया), वियतनाम और थाईलैंड शामिल हैं। भारत में कई विविद्यालयों के नाम उनके नाम पर हैं जिनमें दिल्ली स्थित डॉ. बी.आर. आंबेडकर विविद्यालय, हरियाणा के सोनीपत और राजस्थान के जयपुर में विधि विविद्यालय, गुजरात और तेलंगाना में मुक्त विविद्यालय, मध्य प्रदेश में सामाजिक विज्ञान विविद्यालय तथा बिहार और उत्तर प्रदेश में विविद्यालय शामिल हैं। लंदन मेंंिकग हेनरी रोड स्थित ‘नंबर 10’ 1921-22 के बीच आंबेडकर का घर रहा था, लेकिन अब यह पर्यटकों के आकषर्ण का केंद्र है। यह घर दलितों के इस महान नेता के सम्मान में एक स्मारक में तब्दील कर दिया गया और 2015 में इसका औपचारिक उद्घाटन किया गया। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हाल में राज्य के हर जिले में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के छात्रों के लिए बनाए जाने वाले सभी छात्रावासों का नाम बाबासाहब आंबेडकर के नाम पर रखने की घोषणा की थी।

आंबेडकर नेशनल कांग्रेस तेलंगाना में गठित एक राजनीतिक पार्टी है। यह पार्टी दलितों के अधिकारों के लिए काम करती है। मोहम्मद काज़म अली खान इसके संस्थापक और अध्यक्ष हैं। आंबेडकर समाज पार्टी और आंबेडकराइट पार्टी ऑफ इंडिया उनके नाम पर स्थापित राजनीतिक संगठनों में शामिल हैं। राष्ट्रीय राजधानी में स्थित डॉ. आंबेडकर स्टेडियम एक फुटबॉल स्टेडियम है जिसका उद्घाटन 2007 में हुआ था और इसकी क्षमता 35,000 लोगों के बैठने की है। अयोध्या में एक और स्टेडियम बन रहा है, जिसका नाम आंबेडकर के नाम पर रखा गया है। नागपुर स्थित अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे को डॉ. बाबासाहब आंबेडकर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा के नाम से जाना जाता है। पूर्वी दिल्ली के पटपड़गंज में सड़क के एक हिस्से का नाम आंबेडकर के नाम पर रखा गया है और आंबेडकर को समर्पित एक राष्ट्रीय स्मारक का उद्घाटन भी 2018 में उनकी जयंती की पूर्व संध्या पर यहां 26, अलीपुर रोड पर किया गया था। कन्नौज मेडिकल कॉलेज का नाम भी आंबेडकर के नाम पर रखा जाएगा। दिल्ली, त्रिपुरा, कर्नाटक (बैंगलोर), उत्तर प्रदेश (नोएडा), छत्तीसगढ, अमरावती और मुंबई (महाराष्ट्र) समेत कई अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों का नाम भी उनके नाम पर रखा गया है। दिल्ली के जनपथ पर डॉ. आंबेडकर अंतरराष्ट्रीय केंद्र की स्थापना 2017 में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के क्षेत्र में अध्ययन, अनुसंधान, विश्लेषण और नीति निर्माण के लिए उत्कृष्टता केंद्र के रूप में की गई थी। महू में एक रेलवे स्टेशन, मुंबई में मोनोरेल स्टेशन तथा हैदराबाद और बेंगलुरु में मेट्रो स्टेशनों का नाम भी उनके नाम पर रखा गया है।

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